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वास्तु षास्त्र का वैज्ञानिक दृश्टिकोण
वास्तु षास्त्र भारतीय संस्कृति के पुरातत्व भवन निमार्ण के नियमों का लेखा जोखा है, कल्पना और सौदर्य बोध का नैसर्गिक समन्वय है। उसका प्रत्येक सिद्धान्त वैज्ञानिक दृश्टिकोण से तार्किकता की कसौटी पर खरा उतरता है। हमारे प्राचीन ग्रंथो यथा षोस्त्रों में मनुश्य का षरीर पाँच तत्वों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) द्वारा रचित बताया गया है। अतः मानव षरीर के नियामक इन तत्वों का संरक्षण मनुश्य के द्वारा होना अनिवार्य है अन्यथा प्राकृतिक पर्यावरण को क्षति पहुँचती है। परन्तु विचारणीय बिन्दु यह है कि सभ्यता के प्रारम्भिक युग जब मानव भौतिक साधनों द्वारा सुविधापूर्ण जीवन यापन करने में समर्थ नही था तब उसे प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ता था। वास्तुषास्त्र के औच्त्यि को स्वीकार करने से पूर्व हमें उस युग की परिस्थितियों का अध्यन करना होगा। जब वैज्ञानिक अविश्कारों का अस्तित्व ही नही था। पंखा, पम्प, टयूबलाइट, बल्ब, एक्जाॅस्ट फैन इत्यादि कुछ भी नही था मिट्टी के तेल व रसोई गैस का नामोनिषान तक नही था। आज भी वास्तुषास्त्र के नियमों का पालन करके हम प्र्यावरण संरक्षण करने में समर्थ हो सकते हैं। बिजली की बचत करके हम राश्ट्रीय बचत भी करते हैं। उस युग में मनुश्यों को गृह सुख का अनुभव करने के लिए इन नियमों का पालन करना आवष्यक था तथा नियमों का अनुपालन करवाने के लिए उसको समझना भी अनिवार्य था परन्तु उस युग में साधारण व्यक्ति के लिए विद्याध्ययन सुलभ नही था केबल ब्राहमण ही पठन-पाठन में संलग्न रहते थे। सम्पूर्ण बौद्धिक ज्ञान पर एक वर्ण विषेश प्रकार का एकाधिकार था। अन्य वर्णो के लोग कोई भी षुभ कार्य प्रारम्भ करने के लिए ब्राहमणों से निर्देष प्राप्त करते थे। अब उस परिवेष में तत्कालीन अषिक्षित व अबोध जनसमान्य को दुश्परिणामों का भय दिखाकर ही नियमों का अनुपालन कराया जा सकता था। आज भी यदि विकास प्राधिकरण लोगों को डराने लगे कि 65 प्रतिषत से अधिक भू आच्छादन करने से अनिश्ट होगा, वंष समाप्त हो जायेगा तो सम्भवतः लोग झट से मानना प्रारम्भ कर देगें। नियमों के अनुपालन के लिए डराना धमकाना आवष्यक आज भी है इसके लिए भले ही ब्वउचवनदकपदह चमदंसजल वत कमउवसपेीपदह वतकमत का सहारा लेना पड़े परन्तु इस डराने के पीछे जो उद्देष्य छिपा है वह हमें नही भूलना चाहिए कि वह हमारे ही लाभ के लिए है। प्राचीन काल का यही भय आज अंध्विष्वास के परदे को हटाकर हम वास्तुषास्त्र के वैज्ञानिक दृश्टिकोण का अवलोकन करें कि वास्तुषास्त्र कितना व्यवहारिक है। वास्तु का अर्थ षुभ निवास योग स्थान से है। गृह निर्माण से पूर्व वास्तु के षुभाषुभ का विचार किया जाता है। वृहत्तसंहिता में वास्तु गृह के उत्तम माध्यम आदि क्रम से पाँच भेद कहे गये हैं।
वास्तुषास्त्र का मूल नियम है कि पूर्वोत्तर दिषा (ईषान कोण) में कम से कम निमार्ण हो अर्थात खुलापन ज्यादा हो क्योंकि हमारे देष में सभी अनूकूल पवन तथा पुरवाई इसी दिषा से आती है यहद इस दिषा में अवरोध होगा तो घर में षु़द्ध वायु का आगमन नही होगा। यही कारण है कि सभी कक्षों की बड़ी खिड़कियाँ व द्वार उत्तर या पूर्व की ओर रखे जातें हैं (क्योंकि उस समय हवा के लिए पंखा तो था नही) पानी का स्त्रोत (कुंआ) भी पूर्वोत्तर में ही निर्मित किया जाता था ( याद रहे कि पंप या बोरिंग नही था) जिससे कि हवा, पानी के स्पर्ष से स्वतः ठण्डी होकर आये। उस दिषा में सुगन्धित पुश्प और भी तरो ताजा बनाते थे। अब इसी पूर्वोततर में यदि धुंएदार रसोई या दुर्गन्धयुक्त षोचालय हो तो क्या हो। सारे घर में धुंआ या दुर्गनध फैल जाये और दमा जैसी कई बीमारियाँ घर में घर कर जाये तो रोगग्रस्त होने से परिवार का अनिश्ट होगा। यदि इसी कोण में (पूर्वोत्तर) हवन हो, धूपबत्ती, अगरबत्ती से वातावरण सुवासित हो षुभ मंत्रोच्चारण हों तो सम्पूर्ण गृह षुद्धता से परिपूर्ण रहेगा। अतः पूजा स्थल यहीं होना चाहिए। जब यह कोना सबसे षुद्ध और षीतल है तो गृह का मुख्य द्वार भी यहीं हो ताकि घर में आते या जाते समय प्रभु के दर्षन होने से मन षुद्ध व षान्त रहे जिससे सारा दिन उत्तम ढ़ग से व्यतीत हो। इस सबका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मनोवैज्ञानिक प्रभाव गृह षान्ति व व्यवसाय पर भी पड़ेगा। इसीलिए मुख्य द्धार के आस-पास ही बैठक का प्रावधान किया गया है। उस समय कुंए के अतिरिक्त घर के लिए अन्य कोई जल का स्त्रोत नही था। अतः उसके जल स्तर को बनाये रखने के लिए सारे बरसाती पानी का ढाल पूर्वोत्तर दिषा की ओर (कुंए की ओर) करना आवष्यक था। आज की भाशा में इसी नियम को Ground Water Harvesting (भू जल संचयन) कहा जाता है और विकास प्राधिकरण इसके अनुपालन पर विषेश बल देते हैं। आज अंधविषवास में रहकर हम जैट पम्प तो पूर्वोत्तर में लगा ले और धड़ाधड पीने का पानी निकालते रहें परन्तु भू जल पुनर्भरण (Ground Water Harvesting) न करते तो सारा वास्तुषास्त्र व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि पुर्नभरण न होने से एक दिन भू जल स्तर जैट पम्प के स्तर से नीचे चला जायेगा और यह अनिश्ट का कारण होगा।
दूसरा नियम अग्निकोण का है। इस युग में अग्नि जंगल की लकड़ी और गोबर के कण्डे पर निर्भर थी। समान्यता आज भी हमारे देष के गांवो में इसी का प्रयोग होता है। रसोई में इन साधनो के उपयोग से धुंआ उठता ही था। दक्षिण पूर्व दिषा (Sketch-2) में रसोई रखने से धुंआ पूरे घर में नही फैलता था अर्थात् प्राकृतिक धूम्र निस्तारण (Natural Exhaust System) से वातावरण षुूद्ध और बीमारियाँ दूर! आप कहेगें यदि रसोई उत्तर पष्चिम में भी होती तब भी धंुआ बाहर ही जाता (Sketch-3) परन्तु दक्षिण पूर्व दिषा में सूर्य की किरणों के प्रखर होने से कीटाणुओं का नाष होता है, सीलन नही रहती, अनाज खराब होने से बचा रहता है। अतः दक्षिण पूर्व ही रसोई के लिए सबसे उत्तम स्थान है। यदि काम पर से लौट करव्यक्ति को घर में धुंआ मिले, खांसी हो तो क्लेष निष्चित है। अर्थात यदि रसोई दक्षिण पूर्व में नही है तो परिवार के सुखो का अन्त होता है। यदि आप आज भी भोजन बनाने के लिए गैस के स्थान पर कण्डे व लकड़ी का प्रयोग करते हैं तो रसोई घर पूर्व में ही बनायें।
तीसरा नैतस्य कोण का नियम है। हमने यह पहले ही समझ लिया है कि पूर्वोत्तर में खिड़कियां बड़ी व ज्यादा होती हैं व दक्षिण पष्चिम (जिधर से पछुआ चलती है) में दरबाजे व खिड़कियां सबसे छोटी व कम होनी चाहिए क्योंकि बर्फीली ठण्डी जाड़ो की हवा इसी दिषा में चलती है, उसे रोकना होगा। गर्मियोंकी दोपहरी में भी इसी दिषा को झेलनी होगी अर्थात जितनी बड़ी खिड़की उतनी अधिक ग्रीश्म में गर्मी और षरद ऋतु में सर्दी। यहां खिड़की दरबाजा न हो तो अच्छा है। सुरक्षा की दुश्टि से जहांपीछे खिड़की दरबाजे कम हैं या नही हैं तो ग्रह ज्ञवामी व तिजोरी के लिए सवसे उपयुक्त स्थान यह नैतस्य कोण एस0डब्लू ही है (Sketch-4) यहां बाहर की आबाजें बाहर ही रहती हैं (No Disturbance Zone) अर्थात यहां पिछवाड़े बैठकर सारे घर पर नजर और सबसे सुरक्षित भी। याद रहे कि उस युग में बैंक लाॅकर्स न होने के कारण धन आभुशण घर में ही रहता था और अपने जान माल की सुरक्षा तब भी गृह निमार्ण का मुख्य उद्देष्य होता था और आज भी है। इसी दिषा में आस पास (W or S) षौचालय बनाने का प्रावधान है क्योंकि सर्वाधिक सुर्यातप होने के कारण पराबैगनी विकिरण (u-radiation) द्वारा सवतः ही कीटाणु मुक्त (Sterlization) हो जाता है और वायु की दिषा के कारण कीटाणु व दुर्गन्ध घर के अन्दर नही फैलती है। चैथा वायण्य कोण बचता है जिससे गृह स्वामी की सन्तान के षयन कक्ष का प्रावधान किया गया है। इस कोण में पष्चिम की ओर कम व छोटी खिड़कियां होने पर गर्मी अन्दर कम रहती है व उत्तर पूर्व से आने वाली वायु का आगमन होता रहता है। इस कक्ष में भरपूर प्रकाष (Natural Diffused Light) के होने से पठन-पाठन के लिए उपयुक्त है।
पांचवा ब्रहम स्थान है। सम्पूर्ण भूखण्ड को नौ बराबर भागों में बांटकर बीच वाले भाग को खाली छोड़ देने से सभी कक्षों में संवातन सुनिष्चित हो जाता है। वास्तुषास्त्र में यह भी उल्लेख किया गया है कि भवन की कोई दीबार अन्य किसी भवन की दीबार से नही मिलनी चाहिए अर्थात चारों ओर खुला स्थान गैलरी छोड़ना आवष्यक है। ऐसा करने से उन्हें पूर्वोत्तर (1/9) एवं ब्रहमस्थान (1/9) खुला छुड़वाकर 22.5 प्रतिषत खुला तो उपलब्ध हो जायेगा अपितु चारों ओर गैलरी छुड़वाकर लगभग 35 प्रतिषत खुला स्थान प्राप्त हो गया। यही प्रयत्न आज बरेली विकास प्राधिकरण भी करता रहा है परन्तु लोग वास्तुषास्त्र के नियमों के औचित्य की अनदेखी कर अपनी आवष्यकतानुसार वास्तुषास्त्र को तोड़ मरोड़कर परिभाशित करते रहतें हैं और व्यवहार में लाते रहतें हैं।
वास्तुषास्त्र वड़ी ही बुद्धिमानी से सौदर्य बोध युक्त पर्यावरण पर आधारित एक नियमावली है जो उस परिपेक्ष्य में अत्यन्त आवष्यक थी और आज भी उतनी ही व्यवहार योग्य है, आवष्यकता तो अंधविष्वास को दूर कर उसके महत्व को समझना व तदानुसार उसका पालन करने की। दुश्परिणामों के भय से नही वरन् वर्तमान परिस्थिति में वैज्ञानिक अविश्कारों द्वारा उपलब्ध सुविधाओं को उचित व व्यवहारिक ढ़ग से सोच समझकर वास्तुषास्त्र के नियमों का अनुपालन करने से अभिश्ट की प्राप्ति अवष्य होगी।
आर्कि- अनुपम सक्सेना।